जब मौत हमारी मंजिल थी
जब मौत हमारी मंजिल थी, जीने का इरादा कर बैठे
हर चोट पिरोई माला में, सिलने का हुनर हम अब सीखे
जब ह्रदय घिसा उस पत्थर पर, आंसू की धारा बह निकली
वो वक़्त रहा कुछ देर मगर, नदिया पीना हम अब सीखे
जब भीड़ हमारी साथी थी, आवाजे ही आवाजे थी
अब मौन अकेला खड़ा हूँ मैं, चिंतन का हुनर हम अब सीखे
कर्तव्य बोध जब हमें हुआ, जिन्दा है हम तब पता चला
इक नयी डगर, इक नया सफ़र, चलने का इरादा कर बैठे
अविनाश सिंह राठौर
१२ सितम्बर २०१२
हर चोट पिरोई माला में, सिलने का हुनर हम अब सीखे
जब ह्रदय घिसा उस पत्थर पर, आंसू की धारा बह निकली
वो वक़्त रहा कुछ देर मगर, नदिया पीना हम अब सीखे
जब भीड़ हमारी साथी थी, आवाजे ही आवाजे थी
अब मौन अकेला खड़ा हूँ मैं, चिंतन का हुनर हम अब सीखे
कर्तव्य बोध जब हमें हुआ, जिन्दा है हम तब पता चला
इक नयी डगर, इक नया सफ़र, चलने का इरादा कर बैठे
अविनाश सिंह राठौर
१२ सितम्बर २०१२